युद्धविराम पर भी सियासत शुरू हो गई है। आप युद्धविराम कहें या संघर्षविराम मान लें, कोई फर्क नहीं पड़ता। सैन्य संचालन महानिदेशक (डीजीएमओ) लेफ्टिनेंट जनरल राजीव घई ने पाकिस्तान के साथ टकराव की स्थितियों और घटनाओं को युद्ध से कम नहीं आंका है, लिहाजा हम युद्धविराम का ही प्रयोग करेंगे। प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने युद्धविराम को ‘अप्रत्याशित’ करार दिया है और कई सवाल भी उछाले हैं। कांग्रेस मुख्यालय के बाहर अचानक एक पोस्टर चिपका दिया गया है-‘इंदिरा गांधी बनना आसान नहीं है।’ इस वाक्य में निहित राजनीति को आसानी से पढ़ा-समझा जा सकता है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिख कर मांग की है कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए। उसमें पहलगाम आतंकी हमले, नरसंहार, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ और अप्रत्याशित युद्धविराम पर चर्चा करना जन-प्रतिनिधियों का अधिकार है। देश भी घटनाक्रम की गहराई तक जाना चाहता है। एमआईएम सांसद ओवैसी को युद्धविराम पर आपत्ति नहीं है। उनके तेवर आजकल बदले हुए हैं। उनके लिए आजकल देश प्रथम है, सियासत बहुत बाद में। उनका मानना है कि युद्धविराम की घोषणा प्रधानमंत्री मोदी को करनी चाहिए थी। भारत के संदर्भ में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप कौन होते हैं? वह भारत-पाकिस्तान के बीच टांग क्यों फंसा रहे हैं? भारत अमरीका का मित्र देश है, मोहताज नहीं है। राष्ट्रपति ट्रंप इस गलतफहमी में न रहें कि प्रधानमंत्री मोदी उनकी हर बात आंख मूंद कर मान लेंगे। भारत का अपना राष्ट्रीय विवेक है। बहरहाल संसद सत्र बुलाने की मांग गलत या अतिशयोक्ति नहीं है। सरकार एक और सर्वदलीय बैठक भी बुला सकती है। अतीत में महत्वपूर्ण मुद्दों या घटनाओं पर संसद के विशेष सत्र बुलाए जाते रहे हैं, लेकिन यह मोदी सरकार का विशेषाधिकार है। संकट अभी टला नहीं है, सिर्फ युद्धविराम हुआ है, पाकिस्तान का रुख अभी लगातार देखा जाना है, लिहाजा सरकार और विपक्ष जिस तरह एकजुट रहे हैं, अब भी वही रवैया अपेक्षित है। युद्धविराम की घोषणा डीजीएमओ ही करते रहे हैं।
वह उनका संवैधानिक जनादेश है। हमें याद नहीं है कि कभी देश के प्रधानमंत्री ने युद्धविराम की घोषणा की हो। प्रधानमंत्री मोदी रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और तीनों सेना प्रमुखों के साथ लगातार बैठकें कर रहे हैं। जाहिर है कि युद्धविराम पर भी विमर्श किया गया होगा। डीजीएमओ को भी, अंतत:, प्रधानमंत्री से ही निर्देश मिलते हैं। डीजीएमओ ने पाकिस्तान के समकक्ष के अनुरोध पर, अंतत: युद्धविराम की सहमति दी। राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत-पाक के बीच युद्धविराम का फैसला नहीं लिया। ट्रंप को दक्षिण एशिया की परिस्थितियों का सम्यक ज्ञान भी नहीं है। उन्होंने तो भारत और पाकिस्तान दोनों के नेतृत्व को ‘महान’ करार दिया है। दोनों की ताकत, समझ और धैर्य की सराहना की है कि उन्होंने युद्धविराम की घोषणा कर दी। राष्ट्रपति ट्रंप का भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में, बराबर-बराबर, तोलना ही गलत और भ्रामक है। एक तरफ दुनिया का सबसे विराट लोकतंत्र और दूसरी तरफ नाकाम लोकतंत्र, फौज का परोक्ष शासन, क्या दोनों में तुलना हो सकती है? भारत हर संदर्भ में पाकिस्तान से दसियों गुना आगे और विकसित है। दरअसल राष्ट्रपति ट्रंप ‘सौदेबाज राष्ट्रपति’ हैं। वह यमन पर बमबारी भी करा सकते हैं और हूतियों के साथ बातचीत को भी तैयार हैं। वह हमास के साथ भी संवाद कर सकते हैं, लेकिन गाजा पट्टी पर कब्जा करना चाहते हैं। अमरीका अतीत में भी भारत का मूल्यांकन इसी आधार पर करता रहा है। वह भारत को ‘शक्तिशाली देश’ के तौर पर नहीं देखना चाहता, लिहाजा वह भारतीय सेना के ‘मिट्टी-मलबा’ करने वाले मिसाइल हमले से भी हैरान होगा! यूरोपीय देश भी भारत की शक्ति के विश्लेषण कर रहे हैं। इन स्थितियों में न तो युद्धविराम पर राजनीति उचित है और न ही प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना की जानी चाहिए। विपक्ष के सामने है कि सैन्य संचालन के तीनों महानिदेशकों ने विस्तार से ब्रीफ किया है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का मकसद कैसे हासिल किया गया है। हमारा सब कुछ सुरक्षित है और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अब भी जारी है। उनसे अधिक जानकारी कौन दे सकता है? वे पेशेवर सैन्य अधिकारी हैं। यदि प्रधानमंत्री संसद में भी कुछ बोलेंगे, तो इन्हीं सैन्य अधिकारियों से डाटा लेकर ही बोलेंगे। बहरहाल संसद का सत्र फिर भी बुला लिया जाए, तो हम उसे उचित कदम कह सकते हैं।