महाराष्ट्र में राज ठाकरे की पार्टी के गुंडों ने एक दुकानदार को थप्पड़ों से खूब पीटा। कारण सिर्फ यह था कि दुकानदार मराठी भाषा में बोल नहीं पाया। यह दुकानदार की ही नहीं, बल्कि देश की राजभाषा हिंदी की पिटाई की गई है। ऐसे असंख्य मामले तमिलनाडु में भी सामने आए हैं, जहां हिंदी भाषियों को लतियाया गया है। मुंबई में राजनीतिक गुंडे उत्तरी भारत के लोगों को बार-बार खदेड़ते रहे हैं, लिहाजा यह एक संवेदनशील मुद्दा बन गया है। दरअसल केरल में नंबूदरीपाद से लेकर तमिलनाडु में पेरियार के हिंदी-विरोधी आंदोलन तक हिंदी लगातार पिटती रही है। उस पर राजनीतिक आरोप चस्पां किए जाते रहे हैं कि यह साम्राज्यवाद की भाषा है। संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल अन्य भाषाओं को खा जाएगी। उनके भाषा-क्षेत्र पर कब्जा कर लेगी। ये मिथ्या धारणाएं हैं। संविधान में कोई साम्राज्यवादी भाषा स्थान पा सकती है? भारत के संविधान में हिंदी को संघ की राजभाषा के तौर पर मान्यता दी गई है। देवनागरी को आधिकारिक लिपि के रूप में स्वीकार किया गया है। संविधान सभा में इस पर लंबी चर्चाएं की गईं, अंतत: 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा तय किया गया। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी संबंधी प्रावधान हैं। संविधान का भाग 17, अनुच्छेद 343 से 351 तक, राजभाषा से संबंधित प्रावधानों को समर्पित है। अनुच्छेद 351 में केंद्र सरकार को हिंदी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के निर्देश दिए गए हैं, ताकि यह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन सके। देश हर 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाता है, बेशक हमें ऐसे आयोजन और ऐसी व्यवस्था ‘रस्मी’ लगते रहे हैं। यकीनन हिंदी देश के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है।
करीब 60-65 करोड़ भारतीय हिंदी बोल, लिख, समझ और अभिव्यक्त कर सकते हैं। मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगू आदि अहिंदी भाषी राज्यों, क्षेत्रों के राजनेता, सांसद, लेखक, कलाकार आदि हिंदी भाषा सीखते हैं, बोलने का अभ्यास करते हैं, ताकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिक बन सकें। कई अहिंदी भाषी लेखक, बंगाल की महाश्वेता देवी और महाराष्ट्र के विजय तेंदुलकर आदि, तभी ‘राष्ट्रीय’ बन पाए और उन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ आदि से सम्मानित किया गया, जब उनकी कृतियों के हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुए। बंगाल के प्रतिष्ठित, विख्यात लेखक शरत चंद्र और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास हिंदी के प्रकाशकों ने खूब छापे हैं। देश में उनका एक निश्चित पाठक वर्ग भी है। भारत के सर्वप्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार हैं रवींद्र नाथ टैगोर। उनकी ‘गीतांजलि’ का अनुवाद भी हिंदी में किया गया, जो आज तक हिंदी पाठकों के बीच बिक रहा है।
सवाल है कि देश को भाषायी आधार पर क्यों बांटा जा रहा है? यदि महाराष्ट्र में किसी हिंदी-भाषी दुकानदार को पीटा जाता है अथवा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मद्देनजर ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ में भी हिंदी का स्थान छीना गया है, तो यह सरासर संविधान का उल्लंघन है, लिहाजा आपराधिक भी है। मुंबई में ‘बॉलीवुड’ भी है, जो अरबों का एक उद्योग है। देश भर से लोग उसमें सक्रिय हैं। जो घोषित तौर पर ‘सुपर स्टार’ हैं और अरबों कमा रहे हैं, उनमें से अधिसंख्य मराठी नहीं हैं। आज वे इस मुद्दे पर खामोश क्यों हैं? शायद वे भी ठाकरे बंधुओं की राजनीति से डरते होंगे! वे ‘सुपर स्टार’ कहां छिप जाते हैं, हमें नहीं पता। इन दिनों बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्में हिंदी में डब की जा रही हैं। रजनीकांत और कमल हासन इसी तरह ‘राष्ट्रीय सुपर स्टार’ बन सके। ऐसी फिल्में खूब मुनाफा कमाती हैं, लेकिन हिंदी की बात आती है, तो पीटने वालों के पीछे छिप जाते हैं। यह कैसी नैतिकता और राष्ट्रीयता है? बहरहाल हिंदी विश्व की चौथे नंबर की भाषा है। लोकसभा की आधी से अधिक सीटें हिंदी क्षेत्र की हैं। देश के सर्वाधिक प्रधानमंत्री हिंदी क्षेत्रों से आए हैं। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश ने हमारे कई शब्दों को ग्रहण किया है। करीब 150 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। ऐसी भाषा साम्राज्यवादी कैसे हो सकती है?