-अजीत द्विवेदी-
बिहार में गठबंधन बदल का लगभग पूरी तरह से एकपक्षीय विश्लेषण किया जा रहा है। मीडिया में सिर्फ इस बात की चर्चा है कि नीतीश कुमार बेहद अविश्वनीय नेता हैं और उनका कोई वैचारिक आधार नहीं है। उनके बरक्स लालू प्रसाद और उनके बेटे तेजस्वी यादव की राजनीति को बेहतर और परिपक्व बताया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश की राजनीति सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने के लिए होती है। यह व्याख्या पिछले कुछ बरसों के राजनीतिक घटनाक्रम पर आधारित है और एक हद तक सही है। लेकिन इस एकपक्षीय व्याख्या से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती है। बिहार में जितनी बार गठबंधन में बदलाव होता है और नई सरकार बनती है उतनी बार नीतीश कुमार के साथ एक दूसरी पार्टी भी शामिल होती है। अगर नीतीश वैचारिक और राजनीतिक रूप से बेईमान हैं तो उनके साथ सरकार बनाने वाली दूसरी पार्टियां कैसे ईमानदार और उनके मुकाबले बेहतर मानी जा सकती हैं? आज अगर राजद और कांग्रेस को छोड़ कर नीतीश ने भाजपा के साथ सरकार बनाई है तो इस पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण भाजपा की राजनीतिक मजबूरी के नजरिए से भी की जानी चाहिए। भाजपा को लग रहा था कि अगर 2024 की उसकी संभावनाओं को कहीं से नुकसान हो सकता है तो वह बिहार है और नुकसान पहुंचा सकने की हैसियत वाले नेता नीतीश कुमार हैं। इसलिए उसने राजद और जदयू के बीच के विवाद को भांप कर नीतीश के साथ फिर तालमेल के लिए कदम बढ़ाया। ध्यान रहे नीतीश कुमार की सत्ता को अभी तत्काल कोई चुनौती नहीं थी। यह सही है कि लालू प्रसाद और उनके कुनबे ने और साथ ही उनकी पार्टी ने कई तरह से नीतीश कुमार पर इस बात का दबाव बनाया था कि वे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनवा दें लेकिन अगर नीतीश नहीं बनवाते तो इस बात की संभावना शून्य थी कि राजद समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा देती। सो, नीतीश की सत्ता के सामने चुनौती नहीं थी। यह अंदाजा भी सबको था कि राजद, जदयू, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का महागठबंधन एकजुट रहा और साथ मिल कर चुनाव लड़ा तो बिहार में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी। सी वोटर के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में बताया गया था कि राज्य की 40 में से आधी से ज्यादा लोकसभा सीटें महागठबंधन के खाते में जाएंगी। सोचें, पिछली बार जदयू के साथ होने से एनडीए को 39 सीटें मिली थीं। राजद को शून्य और कांग्रेस को एक सीट मिली थी। इस बार नीतीश के उधर जाने से चुनावी पलड़ा उनके पक्ष में झुक रहा था। भाजपा के एक और आंतरिक सर्वेक्षण की खबरें सामने आ रही हैं, जिसके मुताबिक बिहार में अत्यंत पिछड़ी जातियों का समर्थन नीतीश कुमार के प्रति कायम है। इसके अलावा गैर यादव पिछड़ी जातियों का भी बड़ा हिस्सा नीतीश के साथ है। बिहार में हुई जाति गणना और उस आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने से पिछड़े और अति पिछड़े मतदाताओं में नीतीश की साख और बेहतर होने की खबर है तो लाखों की संख्या में शिक्षकों की बहाली का श्रेय भी नीतीश को मिल रहा है। तभी भाजपा लोकसभा चुनाव की संभावनाओं को लेकर चिंता में आई। दूसरे, नीतीश विपक्षी गठबंधन इंडियाÓ के भीतर सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थे और उन्होंने विपक्षी पार्टियों को एकजुट किया था। तभी भाजपा को लग रहा था कि अगर नीतीश फिर से उसके साथ आते हैं तो एक तीर से दो शिकार होगा। पहले तो विपक्षी गठबंधन इंडियाÓ का अभियान पंक्चर होगा और वह भी तब जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा बिहार पहुंचने वाली है और दूसरे, बिहार में भाजपा का रेनबो समीकरण बहुत मजबूत हो जाएगा। ध्यान रहे भाजपा के साथ चिराग पासवान और जीतन राम मांझी पहले से हैं। यानी दलित और महादलित दोनों के सबसे महत्वपूर्ण नेता भाजपा के साथ हैं। दलित और महादलित के अलावा नीतीश के साथ आने से गैर यादव पिछड़ी जातियां मतलब कोईरी, कुर्मी और धानुक का आठ फीसदी वोट पूरी तरह से भाजपा के साथ आएगा और साथ ही अति पिछड़ी जातियां पूरी तरह से भाजपा गठबंधन के साथ एकजुट होंगी। नीतीश ने लालू प्रसाद के खिलाफ अपनी राजनीति लव-कुश समीकरण से शुरू की थी, जिसमें कुशवाहा नेता के तौर पर शकुनी चौधरी उनके साथ थे। अब शकुनी चौधरी के बेटे सम्राट चौधरी को भाजपा ने नीतीश की सरकार में उप मुख्यमंत्री बनवाया है। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। खुद नीतीश कुर्मी और धानुक पर पूरा असर रखते हैं। उनके साथ आने से पिछड़ी जाति के 27 फीसदी वोट में 14 फीसदी यादव छोड़ कर बाकी वोट एनडीए के साथ एकजुट हो सकता है। जाति गणना के मुताबिक बिहार में 36 फीसदी अति पिछड़ी जातियां हैं, जिनमें आठ फीसदी के करीब मुस्लिम हैं। भाजपा की वजह से उसे अलग भी कर दें तो बचे हुए 28 फीसदी वोट में एनडीए को चुनौती नहीं रह जाएगी। सीएसडीएस के सर्वेक्षण के मुताबिक 2014 में जब भाजपा अकेले लड़ी थी तब 52 फीसदी अति पिछड़ा वोट उसको मिला था और 2019 में जदयू के साथ लड़ी तो 75 फीसदी अति पिछड़ा वोट एनडीए को मिला। इस तरह नीतीश के साथ आने से गैर यादव पिछड़ा वोट का बड़ा हिस्सा और अति पिछड़ा वोट का लगभग समूचा हिस्सा एनडीए की ओर जा सकता है। भाजपा ने अगड़ी जाति के विजय सिन्हा को दूसरा उप मुख्यमंत्री बना कर अपने उस कोर वोट को भी स्पष्ट मैसेज दिया है। अगर राजनीति का मकसद सत्ता हासिल करना है तो उस नजरिए से ही बिहार के घटनाक्रम की व्याख्या होनी चाहिए। यह सिर्फ नीतीश के सत्ता मोह की बात नहीं है, यह समान रूप से लालू प्रसाद के परिवार और नरेंद्र मोदी के भी सत्ता मोह की बात है। नीतीश पर निशाना साधने से पहले इस पहलू से भी देखने की जरुरत है। सोचें, नीतीश ने 1994 से लालू विरोध की राजनीति शुरू की और उनके व उनकी पत्नी के शासन को जंगल राज बता कर लड़ाई लड़ी। तभी दो दशक से ज्यादा की लड़ाई के बाद जब नीतीश ने 2015 में राजद से तालमेल किया तो क्या अवसरवादी सिर्फ नीतीश हुए? या लालू प्रसाद भी उतने ही अवसरवादी माने जाएंगे? फिर नीतीश ने 2017 में राजद को छोड़ दिया और भाजपा में चले गए तो लालू और उनके परिवार ने नीतीश को पलटूÓ की संज्ञा दी और उनके बारे अनान-शनाप बातें कहीं। लेकिन फिर अगस्त 2022 में नीतीश वापस राजद के साथ आए तो लालू का पूरा परिवार फिर उनके चरणों में था! यही कहानी दूसरी तरफ की भी है। नीतीश ने 2013 में भाजपा को छोड़ा, फिर 2017 में साथ लौटे, फिर 2022 में छोड़ा और अब 2024 में वापस लौटे हैं। हर बार साथ छोडऩे पर भाजपा नेताओं ने उनकी आलोचना की और साथ आने पर महान बताया। तो इससे भाजपा का भी चरित्र सामने आता है। कह सकते हैं कि नीतीश ने राजद और भाजपा दोनों के चरित्र को एक नहीं कई बार उजागर किया है। एक और अहम बात यह है कि बिहार में जो कुछ भी हो रहा है या नीतीश कुमार जो कुछ भी कर रहे हैं वह असल में भारतीय राजनीति का चरित्र है। भारत की राजनीति सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए है। उसमें विचारधारा या नैतिकता का कोई मतलब नहीं होता है। नीतीश ज्यादा निशाने पर इसलिए हैं क्योंकि दिल्ली में प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बिहार के पत्रकारों की बहुतायत है और वे अपने राज्य की घटनाओं को देश की घटना बता कर बहुत ज्यादा प्रचारित करते हैं। अन्यथा जो बिहार में हुआ है वह पूरे देश की कहानी है। हाल में एचडी देवगौड़ा ने भाजपा से तालमेल किया है। सोचें, वे कितनी बार भाजपा और कांग्रेस से तालमेल कर चुके हैं? पांच साल पहले ही उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री बने थे और भाजपा ने उनकी सरकार गिराई थी। लेकिन अब वे भाजपा के साथ हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश की कोई पार्टी नहीं बची है, जिसके साथ मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने तालमेल नहीं किया है। डीएमके और अन्ना डीएमके दशकों से कांग्रेस और भाजपा से गठबंधन की अदला-बदली करते रहे हैं। इसलिए बिहार को इनसे अलग करके देखने की जरुरत नहीं है।