हमारा देश लोकतंत्र या जनतंत्र के मामले में चाहे विश्वगुरू माना जाता रहा हो, किंतु हम ही यह जानते है कि इस प्रजातांत्रिक व्यवस्था में हमारे जन प्रतिनिधियों की क्या स्थिति है? आखिर आज की युवा पीढ़ी ‘नेतागिरी’ के व्यवसाय को सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों दे रही है, इसका एकमात्र कारण यह पीढ़ी यह मान रही है कि ‘‘हींग लगे न फिटकरी-रंग चौखा होय’’ अर्थात् स्वयं का खर्च कुछ नही होना और रूतबे (वर्चस्व) के साथ मुफ्त की कमाई अलग इसीलिए आज ‘नेतागिरी’ युवा पीढ़ी के लिए ‘आकर्षण’ बन गई है, देश के पचहत्तर साल के प्रजातंत्र की यही सबसे बड़ी व्यथा है।
….और इसी युवा पीढ़ी से जन प्रतिनिधि बने सांसदों-विधायकों को देखिये, जो आज इन प्रतिनिधि संस्थानों का अस्तित्व ही खत्म करने पर तुले है, आज इन संस्थानों में साल में कितने दिन संचालन होता है, और जनसेवकों की ये संख्याऐं अपना मूल काम कितने प्रतिशत कर पा रही है? मध्यप्रदेश का ही ताजा उदाहरण सामने है, जहां जनहित से जुड़े सिर्फ दो प्रतिशत सवालों पर ही चर्चा हो पाई और पूरा पांच दिन का सत्र शोरगुल में गुम होकर रह गया, यही स्थिति हमारी संसद की रही जहां इस बार जो जन प्रतिनिधियों के आपसी शारीरिक संघर्ष के जो दृष्य उपस्थित हुए, उन्होनें पूरे विश्व में हमारे लोकतंत्र को बदनाम करके रख दिया।
आज ऐसी स्थिति में यह विचार आना स्वाभाविक है कि क्या इसी प्रजातंत्रीय व्यवस्था के लिए हमारे हजारों नौजवानों ने अपनी जाने कुर्बान की थी, क्या इसी लोकतंत्र के बलबूते पर हमारा प्रजातंत्र विश्व में सिरमौर माना जाता है? चाहे संसद-विधानसभा हो या कोई भी जगह जब आपसी व्यक्तिगत स्वार्थ आपस में टकराते है तो यही स्थिति पैदा होती है और आज तो व्यक्तिगत स्वार्थ ही सर्वोपरी है, इसीलिए ऐसी स्थिति में प्रजतंत्र या लोकतंत्र की चिंता कौन करें? आज तो स्थिति यह है कि लोकसभा या विधानसभा के चुनाव लड़े ही अपनी सात पुश्तों को खुशहाल बनाने के लिए लड़े जाते है, जनसेवा के लिए नही, फिर ऐसी विषम स्थिति में देश लोकतंत्र या जनसेवा की चिंता किसे? हमारे ‘माननीयों’ की इसी मानसिकता के कारण संसद व विधानसभाऐं केवल औपचारिक बनकर रह गई है और इनके सत्र निर्धारित अवधि से आधे समय भी नही चल पाते? और हमारी ये जनप्रति संस्थाऐं सबसे कम काम करने की स्पर्द्धा में शामिल हो रही है।
यहाँ यह मुख्य सवाल तो है ही कि हमारे जन प्रतिनिधि कितना व कैसा काम करते है, इसके अलावा एक अहम् सवाल यह है कि संसद विधानसभाओं के इस दिखावे भर के सत्रों पर जनता की राशि कितनी खर्च की जाती है, आज हमारी संसद के एक घण्टे का खर्च करीब डेढ़ करोड़ रूपए होता है, जो जनता की गाढ़ी कमाई का होता है, यदि एक दिन में संसद-विधानसभा पांच या छः घण्टे भी चलती है तो उसका खर्च दस करोड़ से भी अधिक होता है और इस खर्च के हिसाब से काम कितना हो पाता है? इसका जवाब किसी से भी छुपा नही है। इस प्रकार यदि ईमानदारी से देश व उसके लोकतंत्र के आईनें में इन प्रश्नों के सवाल खोजे जाए तो हमें घोर निराशा के अलावा कुछ भी हाथ लगने वाला नही है? वास्तव में प्रजातंत्र की हीरक जयंति के दौरान ऐसे ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर खोजे जाने चाहिए और अभी भी समय है देश को सही दिशा प्रदान की जानी चाहिए।