भारतीय लोकतंत्र सबसे पुराना है। इसकी रिवायतें भी पुरानी हैं लेकिन इसी लोकतंत्र की रक्षा के लिए बनी हमारी संसद आजकल चल नहीं पा रही। लोकसभा अध्यक्ष हों या राज्य सभा अध्यक्ष वे अपने-अपने सदनों को सुचारु रूप से चलाने में नाकाम साबित हुए है। राज्यसभा के सभापति को तो यहां तक कहना पड़ रहा है कि हम अप्रसांगिकता की ओर बढ़ने लगे हैं। सरकार और विपक्ष के बीच का गतिरोध टूटने का नाम ही नहीं ले रहा है। देश की राजधानी दिल्ली प्रदूषण की चपेट में है और देश की संसद हंगामे में डूबी है। संसद को हंगामे से उबारने की कोई गंभीर कोशिश नजर नहीं आ रही। संसद को देखकर लगता है कि -‘ नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली कहावत शायद इसके लिए ही बनी है।
इस बार संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 25 नवंबर को हुई थी। दोनों सदनों में 4 दिन में सदन की कार्यवाही सिर्फ 40 मिनट चली। हर दिन औसतन दोनों सदन (लोकसभा और राज्यसभा) में करीब 10-10 मिनट तक कामकाज हुआ। अब संसद 2 दिसंबर के बाद ही बैठेगी। लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष ने अदाणी और संभल का मुद्दा उठाया। विपक्षी सांसद कार्यवाही के दौरान लगातार हंगामा करते रहे। स्पीकर ने कई बार उन्हें बिठाने की कोशिश की, मगर विपक्ष शांत नहीं हुआ।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा- सहमति-असहमति लोकतंत्र की ताकत है। मैं आशा करता हूं सभी सदस्य सदन को चलने देंगे। देश की जनता संसद के बारे में चिंता व्यक्त कर रही है। सदन सबका है, देश चाहता है संसद चले। लेकिन संसद नहीं चली और लोकसभा के साथ ही राज्यसभा की कार्यवाही सोमवार 2 दिसंबर तक स्थगित कर दी गई। सत्तापक्ष संसद को चलाना ही नहीं चाहता, यदि सत्तापक्ष की मंशा संसद को चलाने की होती तो सत्तापक्ष दरियादिली दिखाता और विपक्ष जिन मुद्दों पर बहस की मांग कर रहा है, उन सभी मुद्दों पर बहस करता, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। विपक्ष भी सत्ता पक्ष के सामने अड़कर खड़ा हुआ है। सदन चलाने के लिए जिम्मेदार लोग कायदे-क़ानून से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा को लेकर अड़े हुए हैं, अन्यथा सदन का संचालन करने वाले और संसद के माननीय सदस्य चाहें तो सदन चल सकता है।
दुर्भाग्य ये है कि संसद का संचालन पीठासीन अधिकारियों के विवेक से नहीं बल्कि निर्देशों से चलाने की कोशिश की जा रही है, और यही समस्या की असल जड़ है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अपनी हठधर्मी आज नहीं तो कल छोड़ना पड़ेगी। सवाल ये है कि विपक्ष द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दों पर बातचीत करने से कौन सा पहाड़ टूटने वाला है? नेताओं को चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, जो सदन में कहना है वो सब वे आम सभाओं में कह रहे है। नेताओं का ये आचरण उनकी अहमन्यता का प्रतीक है। वे सदन के चलते विवादित मुद्दों पर सदन के बाहर बोलकर सदन की अवमानना कर रहे हैं, लेकिन उन्हें समझाये कौन? सदन के पीठासीन अधिकारियों में से किसी में इतना नैतिक या कानूनी साहस नहीं है कि वो माननीय सदस्यों को सदन में विवादित मुद्दों पर बोलने के लिए कहे। सदन में स्पीकर के लिए चाहे प्रधानमंत्री हो या एक सामान्य सांसद सब बराबर हैं। हैरानी की बात ये है कि संसद को लेकर सभी पक्षों का आचरण एक जैसा है। इधर संसद स्थगित होती है उधर प्रधानमंत्री हों या विपक्ष के नेता आम सभाएं करने निकल पड़ते हैं और उन्हें जो बातें सदन में करना चाहिए वे ही बातें वे आमसभाओं में करते हैं। प्रधानमंत्री जी भुवनेश्वर में गरज रहे हैं तो राहुल गांधी वायनाड में।
राज्यसभा में विपक्षी सांसदों की लगातार नारेबाजी के बीच सभापति जगदीप धनखड़ ने कहा, इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। हम बहुत खराब मिसाल कायम कर रहे हैं। हमारे काम जनता-केंद्रित नहीं हैं। हम अप्रासंगिकता की ओर बढ़ रहे हैं। गनीमत ये है कि अभी धनकड़ साहब केवल सदन की कार्रवाई स्थगित कर रहे है। उन्होंने किसी सदस्य को डांटा-फटकारा या निलंबित नहीं किया है, अन्यथा वे जब चाहे तब ऐसा कर सकते हैं। यही हाल लोकसभा अध्यक्ष माननीय ओम बिरला साहब का है। वे सदस्यों की आँखों में आँखें डालकर बात करने के बजाय दिशा निर्देशों के लिए इधर उधर ताकते नजर आते हैं।
आपको बता दें कि संसद की कार्रवाई पर प्रति घंटे डेढ़ करोड़ रुपया खर्च होता है, लेकिन ये पैसा जनधन है इसलिए किसी को इसकी बर्बादी की फ़िक्र नहीं है। संसद के सामने शीतकालीन सत्र के दौरान कुल 16 विधेयक पेश किए जाने हैं। इनमें से 11 विधेयक चर्चा के लिए रखे जाएंगे। जबकि 5 कानून बनने के लिए मंजूरी के लिए रखे जाएंगे। ‘ वन नेशन, वन इलेक्शन ‘ के लिए प्रस्तावित विधेयकों का सेट अभी सूची का हिस्सा नहीं है, हालांकि कुछ रिपोर्ट्स में कहा गया है कि सरकार इसे इसी सत्र में ला सकती है। लोकसभा से पारित एक अतिरिक्त विधेयक भारतीय वायुयान विधेयक राज्यसभा में मंजूरी के लिए लंबित है लेकिन ये सब काम तो तब निबटे जब सदन में हंगामा बंद हो। सरकार तो अंतोगत्वा ये सब काम सदन में आखरी दिन ध्वनिमत से करा ही लेगी लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र में ऐसा होना संसदीय मर्यादाओं और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।