देखिए बंधुवर, क्या आपको नजर नहीं आ रहा कि हमने आपके साथ किए हुए सभी वायदे पूरे कर दिए हैं। …भूखा आदमी परेशान है। एक छोटा-सा परिवार भी है उसका। कितनी भयानक सर्दी है। पेट में अन्न का दाना नहीं। पहनने को पूरे कपड़े नहीं। बाप-दादा के जमाने का एक छोटा-सा कमरा विरासत में मिला था। वक्त के थपेड़ों ने उसे लगभग खंडहर बना दिया। छत की खपरैल टूटी पड़ी है। न जाने कहां-कहां से सर्द हवा तीर की तरह सबके सीने में उतरती है। कभी-कभी सोचते हैं, इससे तो मौत बेहतर है। क्यों न इस जिंदगी का अंत ही कर दें। फिर भी सब सपने देखते हैं। टूटे-फूटे त्रासद सपने। मरने के बाद शायद उनके पीछे बचे इस परिवार को इसका कुछ मुआवजा मिल जाए। बच्चों के बदन पर कपड़े आ जाएं। टूटी छत की मरम्मत हो जाए। लेकिन अपने सपनों में मरने से क्या होगा? कई वर्षों से मरने वालों की गिनती नहीं होती। गिनती हो तो मुआवजा देना पड़ता है। इसलिए उन्हें तो सीधे-सीधे निबटा दो। अत्यधिक शीत से अकड़ कर मर गए तो हम कहेंगे, हाजमा दुरुस्त नहीं था, मर गया। इन गरीबों की पारिवारिक कलह भी बहुत होती है। इसलिए फंदा लगा कर मर गया। सपने चलते हैं, बंधुवर, आंकड़े गवाह हैं, कि भूख से कोई नया आदमी नहीं मरा। फसलें मरने से किसी नए किसान ने फंदा नहीं लगाया। आपने कैसे कह दिया कि इस देश में हरित क्रांतियां असफल हो गईं। पहले से किसी लाभ का नामोनिशान नहीं बचा और दूसरी हरित क्रांति शुरू करने का साहस ही नहीं हुआ। हम तो पर्यावरण प्रदूषण संधि पर भी हस्ताक्षर कर आए थे, चाहे हमारा दादा भाई अमरीका बहाना लगाकर इससे बाहर हो गया। सपना चल रहा है। हम करेंगे भई, प्रदूषण नियंत्रण पर काम शुरू करेंगे, लेकिन दो साल के बाद। इस बीच मौसम की बदमिजाजी सहन कीजिए।
अपनी फसलों को मरता देखिए, मंडियों में उन्हें खुले पड़े-पड़े खराब होते देखिए। बाहर जो मंडी के चौराहे में लटक कर मर गया, वह तो मात्र एक पगला था, जो ‘अच्छे दिन आएंगे’ की बात पर सच ही विश्वास कर बैठा। अपनी जान देकर उसने इस विश्वास का मोल चुका दिया। सपना बोलता है…अब जब जान ही नहीं रहेगी तो उसे कैसे पता चलेगा कि हमने अगले पांच वर्षों में देश की आय को दुगना कर देना था। हम इसे इतना बाहुबली बना देते कि चीन और अमरीका भी कहीं पीछे छूट जाते। परिभाषाएं बदल जातीं? छोटा भाई बड़ा कहलाने लगता, और बड़ा छोटा होकर फिसड्डी हो जाता। …पर आह! तुमने हमारे भाषणों, वायदों और दिलासा भरे तेवरों का विश्वास नहीं किया, और अब फंदा लेकर लटके हुए हो चौराहे में। एक अनजान, गुमनाम लाश, कि जिसके मरने का आजकल कई वर्षों से हिसाब-किताब नहीं रखा जाता। भूखा आदमी परेशान है। ऐसे विरोधाभासी वक्तव्यों से वह कैसे संतुष्ट हो जाए? लेकिन वह एक आदमी नहीं, मर-भुक्खों की जमात है। हर वर्ष इनकी संख्या को घटता बता दिया जाता है। अभी सरकारी डेस्क से इनकी संख्या मात्र बाईस करोड़ बताई जा रही है, लेकिन भूखा आदमी सोचता है, बाईस करोड़ है कि एक सौ बाईस करोड़। सुना था, उसके देश में एक सौ बयालीस करोड़ लोग बसते हैं। उनमें से उसे तो हर व्यक्ति अपने जैसा लगता है। फुटपाथ पर सिकुड़ी पड़ी लाश-सा आदमी, अपनी झुग्गी-झोंपड़ी की टूटी खपरैल में से अपनी मोतियाबिंद भरी आंखों से डूबते चांद और उगते हुए सूरज की तलाश करता हुआ आदमी। अपनी टूटी साइकिल पर बीवी को बिठा कर चलता हुआ आदमी। पास से धूल उड़ा कर निकल जाती हुई आयातित कार को देखता हुआ आदमी।