-आचार्य डॉ.लोकेशमुनि-
यह एक सत्य है कि शरीर में जितने रोम होते हैं, उनसे भी अधिक होती हैं-इच्छाएं। ये इच्छाएं सागर की उछलती-मचलती तरंगों के समान होती हैं। मन-सागर में प्रतिक्षण उठने वाली लालसाएं वर्षा में बांस की तरह बढ़ती ही चली जाती हैं। अनियंत्रित कामनाएं आदमी को भयंकर विपदाओं की जाज्वल्यमान भट्टी में फेंक देती है, वह प्रतिक्षण बेचौन, तनावग्रस्त, बड़ी बीमारियों का उत्पादन केंद्र बनता देखा जा सकता है। वह विपुल आकांक्षाओं की सघन झाड़ियों में इस कदर उलझ जाता है कि निकलने का मार्ग ही नहीं सूझता। वह परिवार से कट जाता है, स्नेहिल रिश्तों के रस को नीरस कर देता है, समाज-राष्ट्र की हरी-भरी बगिया को लील देता है। न सुख से जी सकता है, न मर सकता है।
आज का आदमी ऐसा ही जीवन जी रहा है, वह भ्रम में जी रहा है। जो सुख शाश्वत नहीं है, उसके पीछे मृगमरीचिका की तरह भाग रहा है। धन-दौलत, जर, जमीन, जायदाद कब रहे हैं इस संसार में शाश्वत? पर आदमी मान बैठा कि सब कुछ मेरे साथ ही जाने वाला है। उसको नहीं मालूम की पूरी दुनिया पर विजय पाने वाला सिकन्दर भी मौत के बाद अपने साथ कुछ नहीं लेकर गया, खाली हाथ ही गया था। फिर क्यों वह परिग्रह,मूर्च्छा, आसक्ति, तेरे-मेरे के चक्रव्यूह से निकल नहीं पाता और स्वार्थों के दल-दल में फंसकर कई जन्म खो देता है। चाह सुख-शांति की, राह कामना-लालसाओं की, कैसे मिले सुख-शांति? क्या धांय-धांय धधकती तृष्णा की ज्वाला में शांति की शीतल बयार मिल सकती है? धधकते अंगारों की शैय्या पर या खटमल भरे खाट पर सुख की मीठी नींद आ सकती है? क्या कभी इच्छा-सुरसा का मुख भरा जा सकता है? सुख-शांति का एकमात्र उपाय है-इच्छा विराम या इच्छाओं का नियंत्रण। जिसने इच्छाओं पर नियंत्रण करने का थोड़ा भी प्रयत्न किया, वह सुख के नंदन वन को पा गया।
आकांक्षाएं-कामनाएं वह दीमक है, जो सुखी और शांतिपूर्ण जीवन को खोखला कर देती है। कामना-वासना के भंवरजाल में फंसा मन, लहलहाती फसल पर भोले मृग की तरह इन्द्रिय विषयों की फसल पर झपट पड़ता है। आकर्षक-लुभावने विज्ञापनों के प्रलोभनों में फंसा तथा लिविंग स्टैंडर्ड जीवन स्तर के नाम की आड़ में आदमी ढेर सारी अनावश्यक वस्तुओं को चाहने लगता है, जिनका न कहीं ओर है न छोर। एक समय में कुछ ही चीजों में इंसान संतोष कर लेता था पर आज?३हर वस्तु को पाने की हर इंसान में होड़-सी लगी हुई है। बेतहाशा होड़ की अंधी दौड़ में आदमी इस कदर भागा जा रहा है कि न कहीं पूर्ण विराम है, न अर्ध-विराम। विपुल पदार्थ, विविध वैज्ञानिक सुविधाओं के बावजूद आज का इच्छा-पुरुष अशांत, क्लांत, दिग्भ्रांत और तनावपूर्ण जीवन जी रहा है। और भोग रहा है-बेचौनी से उत्पन्न प्राणलेवा बीमारियों की पीड़ा। भगवान महावीर का जीवन-दर्शन हमारे लिये आदर्श है, क्योंकि उन्होंने अपने अनुभव से यह जाना कि सोया हुआ आदमी संसार को सिर्फ भोगता है, देखता नहीं जबकि जागा हुआ आदमी संसार को भोगता नहीं, सिर्फ देखता है। भोगने और देखने की जीवनशैली ही महावीर की सम्पूर्ण जिन्दगी का व्याख्या सूत्र है। और यही व्याख्या सूत्र जन-जन की जीवनशैली बने, तभी आदमी समस्याओं से मुक्ति पाकर सुखी और शांतिपूर्ण जीवन का हार्द पा सकता है। समस्याएं जीवन का अभिन्न अंग है जिसका अंत कभी नहीं हो सकता। एक समस्या जाती है तो दूसरी आ जाती है। यह जीवन की प्राकृतिक चक्रीय प्रक्रिया है। वर्तमान युग में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे किसी प्रकार की समस्या न हो। आप घर के स्वामी हैं, समाज एवं संस्था के संचालक हैं या किसी भी जनसमूह के प्रबंधक हैं एवं व्यवस्थापक हैं तो आपके सामने कठिनाइयों का आना अनिवार्य है। व्यक्ति चाहे अकेला हो या पारिवारिक, समस्याएं सभी के साथ आती है तो सारी समस्याओं का समाधान है अटल धैर्य। धैर्य के बल पर ही हमें समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है। हमंे इस तथ्य एवं सच्चाई को मानना होगा कि जीवन में सदैव उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, जीवन में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जिनकी हम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते, लेकिन हमें किसी भी अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना धैर्य एवं संतुलन नहीं खोना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि जीवन के प्रति हमारा नजरिया भोगवादी न होकर संयममय हो।
जीवन तंत्र, समाज तंत्र व राष्ट्रतंत्र चलाने में अर्थ व पदार्थ अवश्य सार्थक भूमिका निभाते हैं पर जब अर्थ व पदार्थ मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाते हैं, तब सारे तंत्र फेल हो जाते हैं। अर्थ व पदार्थ जीवन निर्वाह के साधन मात्र हैं, साध्य नहीं। गलती तब होती है जब उन्हें साध्य मान लिया जाता है। साध्य मान लेने पर शुरू होती है-अर्थ की अंधी दौड़ और अनाप-शनाप पदार्थों को येनकेन प्रकारेण पाने की जोड़-तोड़, अंधी दौड़ और जोड़तोड़ में आंखों पर जादुई पट्टी बंध जाती है, तब उसे न्याय-इन्साफ, धर्म-ईमान, रिश्ते-नाते, परिवार, समाज व राष्ट्र कुछ नहीं दीखता, दीखता है-केवल अर्थ, अर्थ और अर्थ…।
मानव हम दो में सिमटता, सिकुड़ता जा रहा है फलतः मानवीय संबंध बुरी तरह से प्रभावित हो बिखर रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं, स्नेहिल संबंधों में दरारें पड़ रही है, हम पियाः- हमारा बैल पीया का मनोभाव भारतीय संस्कृतिके मूलभूत सिद्धांत-सदाचार, सद्भाव, शांति-समता, समरसता को खत्म करने पर तुले हुए हैं। मनुष्य स्वभावतः कामना बहुल होता है। एक लालसा-कामना अनेक लालसाओं की जननी बनती है। जबकि छह फुट जमीन, शायद यही होती है-वास्तविक आवश्यकता। यह है कामनाओं की अंधी दौड़ की अंतिम परिणति। आकांक्षाओं से मूर्च्छित चेतन को जीवित करने के लिए सही समझ का संजीवन चाहिए। सुकरात का सुवचन है-ज्यों-ज्यों व्यक्ति इच्छाओं को कम करता है, देवताओं के समकक्ष हो जाता है। सुख, शांति और स्वास्थ्य का उपहार पा लेता है।