प्रकृति आनंद से भरीपूरी है लेकिन मनीषियों ने संसार को दुखमय बताया है। दुख और आनंद साथ-साथ नहीं रह सकते। संसार वस्तुतः हमारे मन का सृजन है। प्रकृति सदा से है। आनंद से भरी पूरी होने के कारण ही वह सतत् सृजनरत है। संसार इसी का भाग है। तो भी हम आनंद के स्रोत से वंचित हैं। ऐसा क्यों है? बीच में चित्त की बाधा है। योग चित्त अतिक्रमण का ही तंत्र है। चित्तवृत्ति का परदा उठे तो आनंद ही आनंद। योग आनंद का विज्ञान है। पतंजलि के योगसूत्र में चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। चित्तवृत्ति के प्रभाव में ही संसार दुखमय है। आधुनिक विश्व में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। तनाव और अवसाद बढ़े हैं। क्रोध उफना रहा है। मनुष्य अकेला है। परिवार टूट गये हैं। आत्महत्याएं बढ़ी है। हत्या, हिंसा और रक्तपात भी लगातार बढ़ रहे हैं। दुनिया में अनेक आस्थाएं हैं और अनेक विश्वास। सबके अपने सत्य और विश्वास हैं। आस्था और विश्वास को लेकर हो रहे रक्तपात विश्वमानवता के अस्तित्व पर ही खतरा है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का युग है लेकिन वैज्ञानिक शोधों ने हत्या और हिंसा के नये उपकरण दिये हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सत्य का पथ आसान हुआ है लेकिन जीवन का शिव और सुंदर फिसल गया है। ज्ञान विज्ञान से लैस आधुनिक मनुष्यता आत्मघात पर उतारु है। विज्ञान की तरह दर्शन भी सत्य का अनुसंधानी है। वैज्ञानिक शोधों की अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा होती है। चिकित्सा विज्ञान के शोध मनुष्य के लिये हितकर भी है। अन्य वैज्ञानिक शोध भी विश्व स्तरीय चर्चा का विषय बने हैं लेकिन आज जैसी अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा योग दर्शन की है वैसी चर्चा यूनानी दर्शन के दिग्गजों के निष्कर्षों की भी नहीं हुई- न अरस्तू, सुकरात या प्लेटो की और न ही थेल्स, अनसिक्मेनस, हिराक्लिटस या पाइथागोरस की ही। कांट दर्शन की भी अंतर्राष्ट्रीय चर्चा नहीं हुई लेकिन योग दर्शन का नगाड़ा बज रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को धन्यवाद। दुनिया ने 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया। समूचा भारत योग गंध से आपूरित हुआ। बू से नहीं खुशबू से ही। क्यों न हो? क्यों न हो? योग ऋग्वेद के उगने के पहले से परम स्वास्थ्य का मार्ग था। गीता (6.21) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योग का लाभ बताया योग से प्रशांत हुआ आत्म बुध्दि द्वारा ग्रहण किये जाने योग्य सुख प्राप्त करता है। बुध्दि और इद्रिंयां सुख से परे परम आनंद को भी प्राप्त करता है। योग साधक संसार को दुखमय नहीं आनंदमय देखता है। आनंद पाता है और आनंद बांटता भी है। पतंजलि ने योग सिध्दि के अनेक लाभ बताए हैं। सुंदर स्वास्थ्य प्राथमिक है। बुध्दि का अनंत प्रज्ञा से जुड़ना बड़ा लाभ है। पतंजलि ने इसके लिए आधे से भी छोटा श्लोक लिखा है- ऋतम्भरा तत् प्रज्ञाः। तब प्रज्ञा ऋतु से भर जाती है। ऋत प्रकृति का संविधान है। यही सत्य भी है लेकिन ऋतम्भरा में सत्य के साथ सौंदर्य और शिव भी है। योग सिध्द व्यक्ति की लाभ हानि सोचने की परिभाषा बदल जाती है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, योग से प्राप्त आनंद से बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं। (गीता 6.22) वे आगे योग के खूबसूरत परिभाषा करते हैं दुख संयोगं वियोग योगं संजिज्ञम्- दुख संयोग से वियोग हो जाना ही योग है। (वही 6.23) श्रीकृष्ण और अर्जुन के साथ हुए मित्रवत सम्वाद में योग विज्ञान की सरलतम झांकी है। लेकिन अर्जुन तो भी संतुष्ट नहीं होता। अर्जुन हमारे आपके जैसा सामान्य व्यक्ति था। योग विज्ञान सुनने से ही नहीं समझा जा सकता। योग बातों-बातों का बतरस नहीं है, इसके लिये प्रगाढ़ अभ्यास चाहिये। अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, आपने जो समत्व भाव वाला योग समझाया है, मनचंचलता के कारण मुझे उसका कोई मजबूत आधार नहीं दिखाई पड़ता। मन चंचल होता है, शक्तिशाली और हठी होता है, मन को वश में करना वायु को वश में करने की तरह बहुत कठिन है। (वही 33 व 34) अर्जुन बेशक योध्दा है, लेकिन मन चंचलता के रहस्यों से परिचित है। मन स्थिरता आसान कर्म नहीं है। मन अपनी चलाता है, बुध्दि उसी की पिछलग्गू हो जाता है, हम मनमानी करते हैं, हमारी बुध्दिमानी भी मनमानी की पूरक होती है। मन की ताकत बड़ी है। उसे प्रशिक्षित करने के बाद ही बुध्दि के अनुरूप लाया जा सकता है। वरना मन मनमानी ही कराता है। श्रीकृष्ण ने मनचंचलता की बात स्वीकार की निस्संदेह मन को वश में करना बहुत कठिन है, यह चंचल है लेकिन इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। (वही 35) गीता का यह श्लोक पतंजलियोगसूत्र से मिलता-जुलता है। पतंजलि का योग चित्तवृत्ति निरोध है। श्रीकृष्ण का योग मनोनिग्रह है। दोनों का मन्तव्य एक है। श्रीकृष्ण अभ्यास और वैराग्य का मंत्र देते हैं। पतंजलि की भाषा भी वही है अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः- अभ्यास और वैराग्य से इन वृत्तियों का नियंत्रण संभव है। (पतंजलियोग सूत्र 1.12) पतंजलि की शैली वैज्ञानिक है, वे आगे अभ्यास की परिभाषा बताते हैं इन दो (अभ्यास, वैराग्य) में अभ्यास स्वयं में दृढ़ता से प्रतिष्ठित होने का प्रयास है- तत्रस्थितौ यत्नो अभ्यासः। (वही 13) यहां अभ्यास का मतलब योगासन नहीं, स्वयं के कर्म में स्थिर होने का प्रयास है। अभ्यास स्वयं के प्रति सजग चेष्टा है, वैराग्य इच्छा शून्यता है। अभ्यास और वैराग्य चित्त को संयत करते हैं। असली बात है संयत चित्त। योगासन और ध्यान इसी के उपकरण हैं।
पतंजलि योग सूत्र सुव्यवस्थित दर्शन है और यथार्थ विज्ञान भी। दर्शन के आत्मिक अनुभव में मन की चंचलता बाधा है। बाधाएं और भी हैं। पतंजलि ने योग सूत्र (30) में बताया है कि रोग, प्राणहीनता, संशय, प्रमाद, आलस्य, आसक्ति, भ्रांति और अस्थिरता बाधाएं हैं। दुख, निराशा, कपकपी और अनियमित श्वसन लक्षण हैं। यहां रोग ध्यान देने योग्य हैं। पतंजलि वैद्य या चिकित्सक नहीं थे। चरक संहिता आयुर्विज्ञान की प्रख्यात ग्रंथ है। बताते हैं- बिना रोग का होना सुख है और रोग दुख है। आगे स्वास्थ्य के बारे कहते हैं जब मन और बुध्दि का समान योग रहता है तब मनुष्य स्वस्थ रहता है जब इनका अतियोग, अयोग और मिथ्या योग होता है तब रोग। रोग मन और बुध्दि के अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग के परिणामी है। योग परम स्वास्थ्य है। प्राण और शरीर का योग जीवन है। प्राण का कम होना जीवनी शक्ति का घटना है। आलस्य प्राण शक्ति घटाता है, आसक्ति बढ़ाता है। भ्रांति और अस्थिरता मन विक्षेप लाते ही हैं। पतंजलि ने मनुष्य का रहस्यपूर्ण विवेचन किया है और परम स्वास्थ्य के प्राचीन दर्शन को पुनर्जीवित किया है। शरीर, मन, बुध्दि और आत्म से स्वस्थ व्यक्ति हिंसक नहीं हो सकता। आनंदित व्यक्ति सृजन करता है और तनावग्रस्त व्यक्त ध्वंस। योग तनावग्रस्त विश्वमानवता को भारत का प्रशांत उपहार है।
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