-श्री श्री आनन्दमूर्ति-
सामाजिक क्षेत्र में मनुष्य के बीच जो व्यवधान था, उसे समाप्त कर मानवता के कल्याण के लिए शिव हमेशा प्रयत्नशील रहे। कोमलता व कठोरता के प्रतीक शिव ने मनुष्य को जो सबसे बड़ी वस्तु दी है, वह है धर्मबोध। इस कारण शिव ने मनुष्य को अंतर जगत में ईश्वर की प्राप्ति का रास्ता दिखाया। वह रास्ता परम शांति का रास्ता है। शिव के इसी पथ को शैव धर्म कह कर पुकारा जाता है। शिव ने देखा था कि उस ऋग्वेदीय युग में छंद थे, किन्तु राग-रागिनियों की उत्पत्ति नहीं हुई थी। केवल छंदों के रहने से ही तो गाना नहीं गाया जा सकता। यानी उस काल में मनुष्य छंद के साथ परिचित था, किन्तु सात स्वरों से उसका परिचय नहीं हुआ था। इसलिए भगवान शिव ने सात जंतुओं की ध्वनि को केंद्र बना कर सुरसप्तक का आविष्कार किया, जिसने छंदों को ज्यादा मधुर व सरल बनाया। इस तरह सुरसप्तक का आविष्कार कर शिव ने जीवन को और भी मधुमय बना दिया था। यह कम गौरव की बात नहीं है।
केवल गीत या संगीत को ही शिव ने नियमबद्ध बनाया हो, ऐसी बात नहीं है।
ध्वनि विज्ञान के विविध रूपों से भी परिचय उन्होंने ही कराया। ध्वनि विज्ञान, स्वर विज्ञान पर निर्भर है।. मनुष्य के श्वास-प्रश्वास पर निर्भर है। उसी आधार पर शिव ने छंदमय जगत को मुद्रामय बना दिया था। छंद के साथ उन्होंने नृत्य की संगति बैठाई और उसके साथ मुद्रा का योग कर दिया। एक-एक मुद्रा मनुष्य की ग्रंथियों (ग्लैंड्स) को एक-एक प्रकार से प्रभावित करेगी तथा दर्शक व श्रोता का मन भी उससे प्रभावित होगा। ढाक पर लकड़ी का ठोका पड़ने से ही वह वाद्य नहीं कहा जा सकता, वहां भी छंद एवं सुरसप्तक की संयोजना की आवश्यकता है। वह छंद और मुद्रा के साथ संगति रख कर ही बजेगा। नृत्य, गीत और वाद्य का आविष्कार करने के बाद शिव रुक नहीं गए। शिव ने अपने ज्ञान को फैलाया। इससे पहले मनुष्य समाज में विवाह-प्रथा नहीं थी। किंतु शिव ने विवाह-व्यवस्था दी, जिसका अर्थ है-अपने को एक विशेष नियम के अनुसार चलाना। उसका नाम है शैव विवाह। शैव विवाह में पात्र-पात्री पूरा दायित्व लेकर ही विवाह करेंगे और उसमें जाति-कुल को लेकर कोई विचार नहीं किया जायेगा। शिव इतने पर भी नहीं रुके। उन्होंने योग तंत्र के व्यावहारिक पक्ष को भी नियमबद्ध किया। आदर्श पालन में शिव थे कठोर, अति कठोर। किन्तु व्यवहार में मनुष्य के साथ वह थे अत्यंत ही कोमल। एक ही आधार में कठोरता और कोमलता का सुंदर मिलन इससे पहले पृथ्वी पर मनुष्यों को देखने को नहीं मिला था।
(प्रस्तुतिः आचार्य दिव्य चेतनानन्द)