मन मानव के व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण अंग है। यह उसकी आत्मा को प्रदर्शित करता है। यद्यपि यह शरीर से संबंधित है परन्तु शरीर के अधीन नहीं। इसका अपना महत्व और प्रभाव है।
मन का मुख्य कार्य है संकल्प और विकल्प। यह ही विचारों का जन्मदाता है- अच्छे बुरे दोनों तरह के विचारों का। सभी प्रकार की इच्छाएं मन में ही जन्म लेती है। मन वर्तमान से संतुष्ट नहीं होता और भविष्य के सुनहरे स्वप्न निरंतर देखता रहता है। जो उसके पास नहीं है उसे प्राप्त करने का निरंतर प्रयास करता रहता है और जो है उसका अहसास नहीं करता। इसलिए मन में एक के बाद दूसरी इच्छाएं निरंतर जन्म लेती रहती है, कभी किसी वस्तु को पाने की इच्छा और कभी औरों से अपनी प्रशंसा सुनने की।
ये इच्छाएं मानव मन को इस प्रकार घेर लेती है कि मानव द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम किसी न किसी इच्छा पूर्ति की दिशा की ओर ही होता है। मानव के संतोष और असंतोष का जन्मदाता तथा कर्मों का आदि और अन्त भी मन ही है। मन ही भाग्य निर्माता है। बड़ा चंचल है मन। इसी ने इन्द्रिय सुख की प्राप्ति को जीवन का प्रमुख लक्ष्य बना रखा है। गुरु-पीर-पैगम्बर, संत महात्मा इसीलिए मान कर चलते हैं कि मन को वश में करना असंभव नहीं तो अति कठिन अवश्य है। कैसे करें इस चंचल मन को वश में?
मन जानता है कि शरीर इन्द्रिय सुखों का भूखा है। यह उस नौकर की भांति है जिसको पता है कि मेरा मालिक मादक पदार्थों के लिए मेरे पर ही निर्भर है और मेरे साथ बैठकर उन पदार्थों का सेवन करता है। जिस प्रकार ऐसे नौकर को वश में रखना कठिन है, उसी प्रकार न को वश में रखना असंभव नहीं तो सुगम भी नहीं है। अतः मन को वश में रखने के लिए इन्द्रिय सुखों की लालसा को छोड़ना आवश्यक है। जब तक इन्द्रिय सुख पाने की लालसा बनी हुई है तब तक मन को वश में नहीं किया जा सकता।
अज्ञानतावश ही मन भौतिक पदार्थों की प्राप्ति तथा संचय में आनन्द की खोज करता है। वह भूल जाता है कि जो वस्तुएं स्वयं नाशवन हैं, वे शाश्वत सुख कैसे प्रदान कर सकती हैं। इसमें संदेह नहीं कि ये भौतिक पदार्थ कुछ समय तक तो आनन्द प्रदान कर सकते हैं परन्तु बाद में वे या तो अपना महत्व खो देते हैं अथवा सुख का कारण नहीं बन पाते। इसलिए शाश्वत् आनन्द की प्राप्ति के लिए मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है परन्तु कैसे?
मन क्योंकि सृष्टि का रूप है और सृष्टि में ही विचरता है इसलिए इसमें प्रतिपल प्रतिक्षण निरन्तर इच्छाएं जन्म लेती रहती हैं। जिस प्रकार आंखों को देखने से बंद नहीं किया जा सकता, कानों को सुनने से नहीं रोका जा सकता और हृदय को धड़कने से नहीं रोका जा सकता, उसी प्रकार मन को संकल्प और विकल्प से नहीं रोका जा सकता। हां इसकी दिशा परिवर्तित की जा सकती है। आंखें शुभ देखें, कान शुभ सुनें और मन अच्छा सोचे। मन की दिशा परिवर्तन के लिए न का नाता सृष्टि की अपेक्षा सृष्टा से, नाशवान असत्य की अपेक्षा शाश्वत् सत्य से जोड़ना होगा जो आनन्द और दिव्य गुणों का स्रोत है।
उसकी भौतिक वस्तुओं के प्रति लालसा धीरे-धीरे समाप्त होती चली जाती है। उसे भौतिकता नीरस प्रतीत होती है। उसे आनन्द प्राप्त होता है हरिदर्शन में, हरिचर्चा में। वह बीती हुई बात को याद नहीं करता, भविष्य की चिन्ता नहीं करता और वर्तमान में प्राप्त हुए सुख-दुःख को अनासक्त भाव से ग्रहण करता है। उस प्रकार वह जीवन रहते हुए ही मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मन भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर सहज ही परिवर्तित हो जाता है और जीवन व्यतीत होता है आनन्द से।